| श्री मोहनदास करमचंद गाँधी |
बाल्यावस्था
| बालक मोहनदास |
महज़ १३ साल की उम्र में अपने से १ वर्ष बड़ी कस्तूर बाई मकनजी से कर दी गई। पत्नी का पहला नाम छोटा करके कस्तूरबा रख दिया गया और उन्हें प्यार लोग बा कहते थे। उस समय बाल विवाह प्रसिद्ध था। सन १८८६ जब गांधीजी की उम्र १६ साल की थी तब कस्तूरबा ने अपनी पहली संतान जन्म दिया दिनों के पश्चात् बच्चे की मौत हो गई और उसी साल उनके पिता करमचंद गाँधी का देहांत हो गया। गाँधी जी की संतान हरिलाल ने सन १८८८ में , मणिलाल ने सन १८९२ में , रामदास ने सन १८९७ में और देवदास ने सन १२०० में जन्म लिया।
| श्री मोहनदास - श्रीमती कस्तूरबा |
विदेश में शिक्षा। :
४ सितम्बर १८८८ को गांधीजी ने लंदन कॉलेज ऑफ़ यूनिवर्सिटी में पढाई के लिए इंग्लैड चले गए। इंग्लैंड शाकाहारी भोजन ढूंढने के लिए काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा क्योकि वहां ज्यादातर लोग मांसाहार का भोजन पसंद करते थे। गाँधी जी ने मांसाहार खाने का प्रयत्न किया परन्तु वह ऐसा भोजन हज़म नहीं कर सके। उन्होंने अंग्रेजो के रीत रिवाजो व तौर तरीके अपनाने क्या प्रयत्न भी किया जैसे मदिरापान, नृत्य कक्षा में जाना आदि। पहली बार उन्होंने की समिति में सदस्यता ग्रहण की, शाकाहारी समाज में सर्वप्रथम सदस्य बने और गांधीजी ने स्थानीय अध्याय की नीव रखी। किसी समिति में सदस्य बनने में उन्हें बहुत अच्छा अनुभव हुवा। इस समिति में कुछ लोग थिसॉफ़िकल सोसायटी के सदस्य भी थे जिसकी स्थापना विश्व बंधुत्व को प्रबल बनाने के लिए सन १८७६ में हुई थी। थिओसोफिकल सोसायटी का अध्ययन बौद्ध एवं सनातन धर्म के अध्ययन को समर्पित था।
| युवा मोहनदास |
थिओसोफिकल सोसायटी के सदस्यों ने गांधीजी को श्रीमद्भगवतगीता पढ़ने के लिए प्रेरित किया। इससे पहले गांधीजी को धर्म के मामले में कोई ख़ास रूचि नहीं थी, फिर उन्हों ने हिन्दू, इस्लाम, बौद्ध, शिख और अन्य धर्मो के बारे में पढाई करना शुरू किया। ब्रिटिश सरकार (भारत अधिराज्य ) ने उन्हें वापस भारत आने का आदेश भेजा और गांधीजी वापस भारत में आ गए। बम्बई में वकालत में उन्हे सफलता नहीं मिल पायी और वह फिर राजकोट में आकर गरीबो और जरुरतमंदो की मदद करने की लिए उनका केस लड़ते थे और बिनामूल्य लोगो की सेवा करने लगे। काम की ऐसी लगन को देख १८९३ में भारतीय फर्म ने दक्षिम अफ्रीका में अपना केस लड़ने के लिए गांधीजी के साथ एक वर्ष करार करने ऑफर दिया और बिना हिचकिचाए गांधीजी ने स्वीकार कर लिया।
दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी का संघर्ष (१८९३ - १९१४)
उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश साम्राज्य में ही आता था। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ भेदभाव किया जाता था, उसीके चलते गांधीजी ने प्रथम श्रेणी की क्लास का टिकट होने के बावजूद उन्हें तीसरी श्रेणी में बैठने को मजबूर कर दिया था। जब गांधीजी ने इसका विरोध किया तो उन्हें मरिटस्पिटेरस्बर्ग रेलवे स्टेशन पर धक्का दे कर उतर दिया गया था। उतना ही नहीं शेष यात्रा के दौरान जब एक यूरोपियन यात्री गाडी में चढ़ा तो उस समय भी काफी दिक्कत झेलनी पड़ी थी। गाँधीजी को वहां की होटलो में कमरा मिलना भी बहोत मुश्किल हो गया था। ऐसी बहोत सी घटनाएं उनके साथ बनी थी। एक बार अदालत में जज ने उन्हें अपनी पगड़ी उतरने पर मजबूर कर दिया था।
ऐसा बुरा व्यव्हार केवल भारतीयों के साथ ही नहीं बल्कि वहां की मैं अफ्रीकन जनता के साथ भी ऐसा ही व्यव्हार किया जाता था। ऐसी घटनाओ ने गांधीजी के बहुत आघात पहुंचाया था और उनके जीवन का यही टर्निंग पॉइंट साबित हुवा। गांधीजी ने सारे भारतीय और अफ्रीकन प्रजा को न्याय दिलाने में एक मुहीम छेड़ दी। और इस अत्याचार वहा की प्रजा और अन्य भारतीयों को सामान अधिकार दिलवाये।
गांधीजी का भारत आगमन
गांधीजी २५ जनवरी १९१५ को दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे (इस ख़ुशी में हर साल २५ जनवरी प्रवासी भारतीय के रूप में मनाया जाता है। अफ्रीका में उनकी उपलब्धि से भारत के अन्य सवतंत्र सेनानी प्रभावित थे।
भारत के बाद उनका पहला आंदोलन चम्पारण और खेड़ा का सत्याग्रह था।
१. चम्पारण बिहार का एक जिला है जहा अंग्रेज़ो द्वारा जबरन नील की खेती करवाई जाती थी जिसकी वजह से किसानो की ज़मीन ख़राब हो जाती है। गांधीजी की अगुवाई में यह आंदोलन १९ अप्रैल १९१७ को शुरू हुवा था और करीब एक वर्ष तक चला। इस सत्याग्रह में गांधीजी के साथ ब्रजकिशोर प्रसाद, राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा, रामनवमी प्रसाद और जे बी कृपलानी मुख्य नेताओ में थे।
२. खेड़ा जो की
गुजरात का ज़िला है। जब कभी सूखा पड़ता है
और फसल २५% से काम हुई हो तब ऐसी स्थिति में लगान चूका पाना किसानो के लिए मुश्किल
हो जाता था लगान चुकाने पर छूट दी जाती थी ऐसे में बम्बई सरकार लगान भरने में
किसानो पर दबाव दाल रही थी। चम्पारण
सत्याग्रह के बाद खेड़ा सत्याग्रह १९१८ हुवा।
यह सत्याग्रह भी किसानो के लिए था।
गांधीजी ने
अहमदाबाद में साबरमती और कोचरब कोचरब
स्थापना की थी ओर यह आश्रम आज भी उनकी याद
ताज़ा कर देती है।
असहयोग आंदोलन
बैसाखी के दिन १३ अप्रैल १९१९ में अमृतसर के जलियावाला बाग़ में सभा रखी गयी थी जिसमे बड़ी तादाद में लोगो की भीड़ थी और बहोत से नेता आने की सुचना थी। बहोत से ऐसे भी लोग थे जो केवल बैसाखी के मौके पर घूमने आये थे, उस दिन अमृतसर में कर्फ्यू था। लोगो की भीड़ जमा होते देख अंग्रेज़ो ने बाग़ के मैन दरवाजे पर सिपाहियों को रखकर जोरदार फायरिंग शुरू करदी और बहोत से मासूम लोगो की जाने चली गयी।
यह बात सुनकर पुरे देश में आक्रोश की ज्वाला भड़कने लगी और गांधीजी को इस खबर संते ही एक आघात सा लगा। कांग्रेस उस समय दो समूहों में बटा हुवा था एक वह लोग हो हिंसा से लड़कर अंग्रेजो को भागना चाहते थे जैसे चंद्रशेखर आज़ाद, लालालचपतराय, भगतसिंग आदि जिसे जहालवादी कह सकते है और दूसरे वह लोग जो शांतिप्रिय तरीके से अंग्रेजो को देश से निकल न चाहते थे जैसे गांधीजी, गोपालकृष्णगोखले आदि जिसे मवालावादी कह सकते है । अंग्रेज की इस हरकत का जवाब गांधीजी ने असहयोग आंदोलन कर के देना सोचा जिसके चले १९२० में यह आंदोलन शुरू हुवा।
इस आंदोलन में छात्र ने स्कूल - कॉलेज छोड़ दिया, वकीलों ने अदालत जाना छोड़ दिया, कई कस्बो में श्रमिकों ने काम छोड़ दिया ऐसी करीब ३९६ हड़ताल पुरे भारत में इस आंदोलन के दौरान हुई। पुरे देश में इसका प्रभाव पड़ा और जैसे ही यह आंदोलन अपने शीर्ष पर था तब उत्तरप्रदेश के चौरा चोरी के रूप में उल्टा ही भयंकर इस आंदोलन का अंत हुवा।
चौरा चोरी काण्ड
असहयोग आंदोलन के कारण भारत की जनता जोश में आ गयी और अंग्रेजो को और मज़ा चखाने के चक्कर में १९२२ में उत्तरप्रदेश के चौरा चोरी ब्रिटेन ब्रिटेन पुलिस थाने में आग लगा दी और उसमे सारे अंग्रेजी अफसर जलकर मर गए। इस खबर को सुनकर अहिंसा के पुजारी गांधीजी को दुःख हुवा और उन्हें यह लगने लगा की ऐसी और भी घटनाएं हो सकती है इस दर की वजह से असहयोग आंदोलन खत्म करने का फैसला ले लिया।
इस का जिम्मेदार गांधीजी को ठहराते हुए अंग्रेज सरकार ने गांधीजी को १० मार्च १९२२ को छह वर्ष की जेल की सज़ा सूना दी। लेकिन उनको फरवरी १९२४ को अच्छी चालचलगत के कारन रिहा कर दिया गया। इसी दो वर्षो में नेशनल कांग्रेस दो हिस्सों में बट गयी जिसमे एक पक्ष का नेतृत्व चित्तरंजनदास व् मोतीलाल नेहरू करते थे और दूसे पक्ष का नेतृत्व चक्रवर्ती राजगोपालाचारी व् सरदार वल्लभभाई पटेल करते थे। इस बिच हिन्दू - मुस्लिम में भी एकता नहीं रही।
हिन्दू - मुस्लिम को मिलाने में गांधीजी ने १९२४ की बसंत के मौसम में तीन सप्ताह का अनशन किया था, इसमें गांधीजी को अंशतः सफलता मील पाई। १९२० का पूरा गांधीजी सक्रिय राजनीति से दूर रहकर अपनी बटी हुई पार्टी को एक करने में लगे हुए थे और उनके बिच खाई भरने मे लगे थे। इसके साथ साथ अज्ञानता, शराब, अश्पृश्यता आदि के विरुद्ध आंदोलन भी कर रहे थे।
१९२० का पूरा गांधीजी सक्रिय राजनीति से दूर रहकर अपनी बटी हुई पार्टी को एक करने में लगे हुए थे और उनके बिच खाई भरने मे लगे थे। इसके साथ साथ अज्ञानता, शराब, अश्पृश्यता आदि के विरुद्ध आंदोलन भी कर रहे थे।
नमक सत्याग्रह और दांडी यात्रा
| दांडी यात्रा |
गांधीजी की सक्रीय साजनीति में १९२८ में वापसी हुई तब सारे भारतीय नेताओ ने सर जॉन सायमन के नेतृत्व वाला संविधान स्वीकारने से इंकार कर दिया। उनका मानना था की भारत संविधान, भारत के लोगो के द्वारा ही बनाया गया हो। सके बाद १२ मार्च १९३० को नमक के कानून विरोध करते हुए अहमदाबाद से दांडी तक दांडी यात्रा की शुरुआत की। इस यात्रा में हजारो की संख्यामे लोगो ने समर्थन दिया और ४०० किलोमीटर (२४८ मिल ) की इस यात्रा में भाग लिया था। समुद्र के तट पर पहुंचने के बाद गांधीजी ने नमक का कानून तोड़कर खुद नमक का उत्पादन करने को मंजूरी दी। इसके चलते अंग्रेजो ने करीब ८०००० लोगो को जेल भेज दिया था।
गांधी - इरविन करार
सविनय अवज्ञा आंदोलन को ख़त्म करने के लिए लार्ड एडवर्ड इरविन ने गांधीजी के साथ विचार विमर्श करके १९३१ में गांधी - इरविन करार पर हस्ताक्षर किये। इस करार के अनुसार सभी साथियो को रिहा करना था। और गांधीजी को एक मात्र भारतीय कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में लंदन में होने वाले गोलमजी परिषद् में आने की लिए आमंन्त्रित किया। गोलमजी परिषद् गांधीजी और अन्य नेताओ के लिए निराशाजनक था।
दलित आंदोलन और निश्चय दिवस
१९३२ में सभी गोलमजी परिषद् में हिस्सा लेने वाले मात्रा भारतीय डॉ. भीमराव आम्बेडकर द्वारा दलित आंदोलन चलाया गया था। जिसका मुख्या उद्देश्य पिछडो को शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक समानता व् आर्थिक लाभ देना और दलितों को दो मत का अधिकार विशेष था, गांधीजी भी छुआछूत को दूर करने के लिए प्रयास किये थे। गांधीजी ने दलितों को हरिजन का नाम दिया जिसे वह भगवन की संतान मानते थे और गांधीजी ने सितम्बर १९३२ में देशुद्धीकरण बाद २१ दिवस का उपवास करके दलितों की महत्ता को काम आँका यह बात आम्बेडकर और उनके सहयोगियों को पसंद नहीं आई। गांधीजी के प्रयासों से हिन्दू धर्म के मंदिरो में दलितों को जाने की अनुमति १ जनवरी १९३४ को दी गयी और इस दिन को निश्चय दिवस घोषित किया गया।
दलित आंदोलन के बारे में और जाने पढ़े यह किताब : गाँधी और आंबेडकर
द्वितीय विश्व युद्ध और भारत छोडो आंदोलन
१९३१ में जर्मनी ने पोलैंड पर आक्रमण कर दिया और धीरे धीरे विश्व युद्ध का निर्माण हो गया। अंग्रेज सरकार विश्व युद्ध में व्यस्त बनने कारन गांधीजी और अन्य नेताओ ने भारत छोडो आंदोलन को ओर ज़ोर दिया। अंग्रेज सरकार भारतीयों को ब्रिटेन की ओर से लड़ने आदेश ठुकराते हुए अंग्रेजो छोड़ने पर मजबूर किया। इसी बिच गांधीजी ने स्वराज पार्टी और कांग्रेस पार्टी को एक करने में कामयाब हो तो गए थे लेकिन दूसरी ओर मुस्लिम लीग भी मजबूत बन चुकी थी। ऒर भारत सफलता पूर्वक १५ अगस्त १९४७ को आज़ादी तो मिल लेकिन इसमें नया तीन हिस्सों में बट था। एक पूर्वी पाकिस्तान, दूसरा पश्चिम पाकिस्तान एवं तीसरा भारत जिसमे पर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश ओर पश्चिम पाकिस्तान जो वर्तमान है।
| भारत छोडो आंदोलन |
गांधीजी की मृत्यु
नत्थूराम गोडसे जो की हमारे देश के जहालवादी क्रन्तिकारी थे उन्होंने गाँधी जी को ३० जनवरी १९४८ को नई दिल्ली के बिड़ला भवन में गोली मारकर हत्या कर दी। नत्थूराम गोडसे ने कारण बताते हुए कहा की गांधीजी की मंजूरी के बाद ही पाकिस्तान को ५५ करोड़ रूपये दिए थे। पाकिस्तान इसका नाज़ायज़ फायदा उठा सकता था। सभी इस मंजूरी के विरोध में थे। केवल गांधीजी ही पाकिस्तान को ५५ करोड़ देने के समर्थन में थे।
नई दिल्ली के राजघाट में आज भी गांधीजी की समाधी मौजूद है ओर उस पर देवनागरी लिपि में ''राम'' लिखा हुवा है।
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